" रोज दफ़्तर से लौटते वक़्त,
चौखट पर बैठा हुआ मिलता था
वो कभी मुस्कुराता, कभी कुछ बुद-बुदाता,
कभी खामोश, और कभी बेचैन सा
वही बैठता था, मेरी चौखत पर
कौन था? पहचान नही पा रहा था उसे
सोचा पूँछू, करीब जाकर
लेकिन बचता रहा हमेशा
आज लौटा जब दफ़्तर से,
देखा बैठा था वह वही ,
थोड़ा उदास था, आँखें कुछ नम सी थी
हिम्मत कर करीब गया
पूँछा उसे " कौन हो? "
कोई जबाब नही दिया उसने
बस एक बार देखा मेरी ओर
और बस देखता रहा
फ़िर पुँछा मैने '' कौन हो? "
नीद से जागा जैसे वह
बोला " पहचाना नही मुझे ,
मै तुम्हारा एक अधूरा ख्वाब , भूल गये क्या मुझे "
मेरा एक ख्वाब ! , एक सवाल ,
एक बेचैनी सी होने लगी ,
कब देखा था, इस ख्वाब को
और पहचान नही पाया, मिलता तो रोज था
हौसला कर ,हाथ बढ़ाया
छुआ उसे
और ख्वाब हक़ीक़त हो गया "
- " हैदर "
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